थमने का नाम नहीं ले रहा है दहेज हत्या, दुष्कर्म और महिलाओं पर अत्याचार
हर वर्ग की महिलाएं हो रहीं है शिकार
खोखले है जागरूकता के सभी दावे
जमुआ/जन की बात
जमुआ और आसपास के प्रखंडों में चाहे वो दहेज हत्या की बात हो, दुष्कर्म की बात हो, बाल विवाह की बात हो या बाल मजदूरी या घर-बाहर की प्रताड़ना की बात महिलाओं पर अत्याचार रुकने का नाम नहीं ले रहा है। जमुआ में तो दहेज हत्याओं का जैसे सिलसिला सा चल गया है। एक के बाद एक घटनाएं सामने आ रही है। अभी हीरोडीह के तीसीटांड और नवडीहा के जंगरीडीह में हुई विवाहिताओं की मौत का मामला ठंढ़ा भी नहीं पड़ा था कि बीते रविवार की रात को जमुआ के इकतारा में एक और नवविवाहिता का शव जमुआ पुलिस ने बरामद किया। हम सिर्फ़ इस दिसंबर की हीं बात करें तो इससे पहले बिरनी के सरंडा में विवाहिता बेबी देवी की दहेज हत्या, बेंगाबाद के पलोखरी में नाबालिग छात्रा के साथ दुष्कर्म, गांडेय में एक महिला के साथ दुष्कर्म, हीरोडीह में विवाहिता की हत्या, डुमरी के बड़कीटांड में एक नाबालिग किशोरी के साथ दुष्कर्म, तिसरी के ढोंगांचटी में विवाहिता इलायची देवी की मौत, तिसरी के कर्णपुरा में नाबालिग बच्चीयों का विवाह – आप देखें तो कुछ वर्षों से यह सिलसिला लगातार जारी है। लॉक डाउन में जहां वाहन चोरी, चैन स्नेचिंग, हत्या, जमीन विवाद, लूट और चोरी जैसे हर प्रकार के अपराध में भारी गिरावट आई है, लेकिन महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों का सिलसिला बदस्तूर जारी रहा। यहां तक कि महिलाओं को इस बंदी में शारीरिक के साथ साथ मानसिक यातनाओं को भी सहना पड़ा था। भारतीय महिलाओं को अपराध सहने की आदत बचपन से ही डाल दी जाती है। इसे उनका मुकद्दर बता दिया जाता है।
दिल्ली के निर्भया कांड के बाद वर्ष 2012 में देशभर में सड़कों पर महिलाओं के आत्मसम्मान के प्रति जिस तरह की जन-भावना और युवाओं का तीखा आक्रोश देखा गया था, उससे लगने लगा था कि समाज में इससे संवदेनशीलता बढ़ेगी और ऐसे कृत्यों में लिप्त असामाजिक तत्वों के हौंसले पस्त होंगे किन्तु यह विड़म्बना ही है कि समूचे तंत्र को झकझोर देने वाले निर्भया कांड के बाद भी शायद ही कोई दिन ऐसा बीतता हो, जब ‘आधी दुनिया’ से जुड़े अपराध के मामले सामने न आते हों। होता सिर्फ यही है कि जब भी कोई बड़ा मामला आता है तो हम पुलिस-प्रशासन को कोसने और संसद से लेकर सड़क तक कैंडल मार्च निकालने की रस्म अदायगी करके शांत हो जाते हैं और पुनः तभी जागते हैं, जब ऐसा ही कोई बड़ा मामला पुनः सुर्खियां बनता है।
महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की घटना समाज के विकसित होने से नहीं बल्कि उसकी मानसिकता से जुड़ा है। किसी भी सभ्य समाज में महिलाओं के खिलाफ हिंसा की कोई जगह नहीं हो सकती है, परंतु इसके लिए ज़रूरी है समाज का मानसिक रूप से विकसित होना। लेकिन ऐसी घृणित घटनाओं के बाद जब सामाजिक सरोकार के कथित पैरोकारों द्वारा पैसे का लेनदेन कर मामले को रफादफा करने की जब क़वायद की जाती है तो समाज का माथा शर्म से झुक जाता है। अभी हीरोडीह के मामले में भी कुछ ऐसे हीं खुलासे हुए। अपने आप को महिला अधिकार के लंबरदार बताने वाले कथित जनप्रतिनिधियों का तोलमोल पूरा जिला देखा। जहां तक अपने देश का प्रश्न है तो सदियों से भारतीय समाज महिला को देवी के रूप में पूजता रहा है, लेकिन इसके बावजूद भारतीय समाज में महिलाओं को बराबरी का स्थान पाने के लिए आज भी संघर्ष करनी पड़ रही है। समय आ गया है इस बात पर गंभीरता से विचार करने का, कि आखिर देश, समाज, घर और परिवार के लिए अपना सबकुछ निछावर करने के बावजूद महिलाओं के खिलाफ हिंसा क्यों नहीं रुक रही है?
अब दिनदहाड़े सामने आती छेड़छाड़, अपहरण, बलात्कार या सामूहिक दुष्कर्म जैसी घटनाएं सभ्य समाज के माथे पर बदनुमा दाग के समान हैं। आए दिन देशभर में हो रही इस तरह की घटनाएं हमारी सभ्यता की पोल खोलने के लिए पर्याप्त हैं।